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बिरसा मुंडा के गोदावरी आंदोलन में डॉ0भीमराव अंबेडकर ने अपना आदर्श गुरु बनाया था और गांधी जी ने उनसे प्रेरणा लेकर सूट- बूट त्यागे थे

अलीराजपुर:-धरती आबा आजादी के महानायक,

जल,जंगल,जमीन के संरक्षक महानायक सूर्यक्रान्ति भगवान बिरसा मुंडा के गोदावरी आंदोलन में डॉ0भीमराव अंबेडकर ने अपना आदर्श गुरु माना था। इतनी ही नहीं जब गांधी जी इंग्लैड से वकालत की शिक्षा पूरी कर देश में आकर सूट-बूट में रहने लगे थे।जब बिरसा मुंडा को गांधी जी ने देखा ओर उनका नाम “क्रांतिसूर्य धरती आबा महामानव भगवान बिरसा मुंडा नाम सुनकर गांधी जी ने कहा था कि ये कितने लोग हैं, भीड़ में से एक आवाज आई कि ये एक ही व्यक्ति का नाम हैं जो सामने लंगोटी में खड़ा है।गांधी जी ने बिरसा मुंडा जी से प्रेरणा लेकर सूट-बूट त्याग कर धोती पहनना सीखा।

        भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा ने अंग्रेजों के कारनामों पर टिका-टिप्पणी करना प्रारम्भ कर दिया स्कूल प्रबंधकों को बिरसा का यह आचरण खटकने लगा।और उन्होंने बिरसा पर बहुत दबाव डाला कि वह आलोचना करना बंद कर दे किंतु वह सत्य पर दृढ़ बना रहा।परिणास्वरूप बिरसा को स्कूल से निकाल दिया गया।

            15 नवंबर 1875 को झारखंड के आदिवासी दम्पति सुगना और करमी के घर जन्मे बिरसा मुंडा ने साहस की स्याही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्य की शब्दावली रची। उन्होंने हिन्दू धर्म और ईसाई धर्म का बारीकी से अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदिवासी समाज मिशनरियों से तो भ्रमित है ही हिन्दू धर्म को भी ठीक से न तो समझ पा रहा है, न ग्रहण कर पा रहा है।

स्कूल से निकाले जाने के बाद पीड़त लोगों की सेवा में जुट गया और बीमार व्यक्तियों का उपचार करने लगा, लोग ठीक होने लगे, लोगों की भीड़ एकत्रित होने लगीं। लोगों में विश्वास बढ़ने लगा।बिरसा मुंडा के करण ओझाओं का काम चौपट हो रहा था।

          बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर आदिवासी समाज अंधविश्वासों की आंधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था के मामले में भटका हुआ है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है। धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं, तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं।

             भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण की नाटकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा।

            पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने ने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया।

              सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गई। यह सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए। उन्होंने बिरसा को साजिश रचकर फंसाने की काली करतूतें प्रारंभ की। यह तो था सामाजिक स्तर पर बिरसा का प्रभाव।

        दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों क आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे।

           बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। आदिवासियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया।

           तीसरा था राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए।

 भंगुसिह तोमर

      जिलाध्यक्ष

आदिवासी कर्मचारी-अधिकारी संगठन(आकास) जिला अलीराजपुर

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